Kabir Das ke dohe
Kabir Ke Dohe In Hindi
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
भावार्थ : दुःख के समय सभी भगवान् को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों !
मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ॥
भावार्थ : बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला – कपट से भरा है – उससे तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है।
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ॥
भावार्थ : बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला कबीर कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दुखों की जड़ है – ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके?
गुरु गोविंद दोउ खड़े काको लागूं पाय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंन्द दियो बताय ।।
भावार्थ : इस दोहे मे कबीर दास जी कहते हैं कि अगर हमारे सामने ईश्वर और गुरु एक साथ खड़े हैं तो हमें किसके चरण स्पर्श करना चाहिए। गुरु ने अपने ज्ञान के द्वारा ही हमें ईश्वर से मिलने का रास्ता बताया है इसलिए गुरु की महिमा ईश्वर से ऊपर है। इसलिए हमें पहले गुरु के चरण स्पर्श करना चाहिए।
Kabir ke Dohe in Hindi
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
भावार्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है ! इसलिए किसी भी चीज़ को तुछ नही समझना चाहिए।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
भावार्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।
Sant Kabir Ke Dohe
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
भावार्थ : न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
भावार्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
Kabir Ke Dohe Kabir Das ki dohe
रात गंवाई सोय कर दिवस गंवायो खाय ।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥
भावार्थ : रात सो कर बिता दी, दिन खाकर बिता दिया हीरे के समान कीमती जीवन को संसार के निर्मूल्य विषयों की कामनाओं और वासनाओं की भेंट चढ़ा दिया – इससे दुखद क्या हो सकता है ?
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
भावार्थ : इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
Kabir Ke Dohe
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
भावार्थ : जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह॥
भावार्थ : पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है.सूखा काठ – लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? अर्थात सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है. निर्मम मन इस भावना को क्या जाने ?
Kabir Ke Dohe
देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥
भावार्थ : देह धारण करने का दंड – भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है. अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कुछ झेलता है !
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
भावार्थ : बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
Kabir Ke Dohe
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
भावार्थ : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥
भावार्थ : इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं. सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
भावार्थ : इस दोहे मे कबीर दास जी कहते हैं सज्जन पुरुष की जाति नहीं पुछनी चाहिए बस उसके ज्ञान को समझना चाहिए। जैसे कि तलवार का मूल्य होता है न कि उसके म्यान का।
Kabir Ke Dohe
साईं इतना दीजीए, जामे कुटुंब समाए
मै भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।
भावार्थ : हे प्रभु, मुझे बहुत सारा धन और संपत्ति नहीं चाहिए, मुझे बस वही चाहिए जो मेरा परिवार अच्छा खा सके। न मैं भूखा रहूं और न मेरे घर से कोई साधू भूखा जाये ।
चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए
दुई पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।
भावार्थ : लोगो की जिंदगी चलती देखकर, कबीर को रोना आता है। क्यों की इस चलने वाली जिंदगी में सब को एक दिन छोड़कर जाना है। जिंदगी और मौत ये दो पाटो(चक्की के दो पत्थर) के बीच में सभी को पिस पिस कर एक दिन ख़त्म होना है। कुछ लोग इस सत्य को जानकर भी अज्ञानी हो जाते हैं।
Kabir ke Dohe with Meaning in Hindi
कबीर कूता राम का, मुदटया मेरा नाऊ
गले राम की जेवडी, जजत खींचे ततत जाऊं।
भावार्थ : कबीर राम के र्लए काम करता है जैसे कुत्ता अपने मार्लक के र्लए काम करता है। राम का नाम मोती है जो कबीर के पास है। उसने राम की जंजीर को अपनी गदषन से बांधा है और वह वहााँ जाता है जहााँ राम उसे ले जाता है।
बैद मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार
एक कबीरा ना मुआ, जेदह के राम आधार।
भावार्थ : एक थचककत्सक को मरना है, एक रोगी को मरना है। कबीर की मृत्यु नहीं हुई तयोंकक उन्होंने स्वयं को राम को अवपषत कर ददया था जो कक सवषव्यापी चेतना है।
Kabir Ke Dohe
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह
शब्द बिना साधू नहीं, द्रव्य बिना नहीं शाह।
भावार्थ : बिनम्रता आनंद का असीम सागर है। कोई भी राजनीति की गहराई को नहीं जान सकता। जैसा की बिना पैसे वाला व्यक्ति अमीर नहीं हो सकता, एक व्यक्ति बिनम्र हुए बिना अच्छा नहीं हो सकता।
Kabir ke Dohe
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